रजपूती आन: वीर सिंह का धर्मसंकट
अध्याय १: नियति का फेर और पुराना बैर
आषाढ़ का तपता सूरज पश्चिम की ओर ढलकने लगा था, और उसकी ताम्रवर्णी किरणें राजस्थान की वीरभूमि पर बिखरी धूल को भी स्वर्णिम आभा प्रदान कर रही थीं। इसी सुनहरी सांझ में, जयपाल सिंह अपने घोड़े 'चेतक' (उसके पुरखों के प्रसिद्ध घोड़े के नाम पर रखा गया एक नाम) को पुरबिया गांव की सीमा से पार कराते हुए सरपट भगाए जा रहा था। हवा उसके चेहरे से टकराती, पर उसके मन में उथल-पुथल मची थी। उसे आज शाम ढलने से पहले दूर देश के एक गांव, अपनी लाडली बेटी के रिश्ते की बात पक्की करने पहुँचना था। हृदय में एक अनजाना सा भय और एक मीठी सी आशा दोनों ही हिलोरें ले रही थीं। बेटी के हाथ पीले करने का सपना हर पिता की तरह उसकी आँखों में भी तैर रहा था।
मार्ग लम्बा था और धूप की तेजी अब भी कम न हुई थी। आधा रास्ता पार करने के बाद, जब सूरज नीम के पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपने लगा था, जयपाल ने एक पुराने, विशाल वटवृक्ष की घनी छांव और पास ही कल-कल करते एक छोटे से तालाब को देखकर तनिक विश्राम करने का विचार किया। घोड़े को पेड़ की मजबूत डाल से बांधकर, उसकी पीठ थपथपाकर, उसने स्वयं भी कमर सीधी की। अंगोछे से माथे का पसीना पोंछा और पेड़ की जड़ से टिककर सुस्ताने लगा। आँखें बस मुंदी ही थीं कि अचानक घोड़े की हिनहिनाहट और कुछ अपरिचित आहटों से उसकी तंद्रा भंग हुई।
उसने चौंककर आँखें खोलीं तो पाया कि चार हट्टे-कट्टे, हथियारबंद लड़ाकों ने उसे चारों ओर से घेर रखा था। उनके चेहरे कपड़ों से ढंके थे, पर उनकी आँखों में प्रतिशोध की ज्वाला स्पष्ट दिखाई दे रही थी। जयपाल का अनुभवी मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा।
उनमें से एक, जो शायद उनका सरदार था, धीरे से आगे बढ़ा। उसने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया, और उसकी भेदती हुई निगाहें जयपाल के चेहरे पर जा टिकीं। एक क्रूर मुस्कान उसके होठों पर थिरकी। "पहचाना मुझे, जयपाल सिंह?" उसका स्वर किसी शिकारी की तरह शांत किन्तु भयावह था।
उस चेहरे और आवाज़ को देखते-सुनते ही जयपाल के पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गई। एक पल को उसका हृदय धड़कना भूल गया। अतीत के पन्ने किसी तूफ़ान की तरह उसकी आँखों के सामने कौंध गए। वह चेहरा वीर सिंह का था! वही वीर सिंह, जिसके جوان भाई को वर्षों पहले ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े के विवाद में जयपाल और उसके साथियों ने मौत के घाट उतार दिया था। वह रक्तरंजित दृश्य, वह चीत्कार, वह पश्चाताप की अग्नि जो वर्षों से उसके सीने में सुलग रही थी, आज जैसे फिर से धधक उठी।
इसी बीच, वीर सिंह के एक अधीर साथी ने, शायद अपने सरदार के प्रति निष्ठा दिखाने की आतुरता में या जयपाल की विवशता का उपहास उड़ाते हुए, आगे बढ़कर लेटे हुए जयपाल को अपनी नुकीली जूती से एक जोरदार ठोकर मारी और ललकारा, "उठ कायर! आज तेरा हिसाब चुकता होने का दिन है!"
वीर सिंह की त्योरियां चढ़ गईं। उसने अपने साथी को हाथ के इशारे से रोकते हुए कठोर स्वर में कहा, "ठहरो! जयपाल सिंह एक वीर पुरुष है, भले ही आज वह हमारा बंदी है। इसे अपनी जूती की ठोकर से अपमानित मत करो। यह आज मरेगा, पर मेरी तलवार को सम्मानित करते हुए, एक योद्धा की भांति!" इन शब्दों में प्रतिशोध की ज्वाला के साथ-साथ एक योद्धा का दूसरे योद्धा के प्रति कहीं दबा हुआ सम्मान भी था।
जयपाल धीरे से उठा। उसके चेहरे पर भय नहीं, बल्कि एक अजीब सी शांति और अपने कर्मों के प्रति स्वीकारोक्ति का भाव था। उसने धूल झाड़ी और क्रोधित वीर सिंह की आँखों में आँखें डालकर कहा, उसकी आवाज़ में पश्चाताप का दर्द था, "वीर सिंह, तेरे भाई को मारने का दुःख मुझे आज भी है, शायद मृत्यु तक रहेगा। वह ज़मीन का टुकड़ा न तुम्हारा था, न हमारा। वह तो गांव का मक्कार कारिंदा था जिसने हम दोनों परिवारों को अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए लड़वा दिया था। पर सत्य यही है कि तेरे भाई का खून मेरे हाथों से रंगा है, और इस भार को मैं बरसों से ढो रहा हूँ। एक परिवार को उजाड़ने का मैं गुनहगार हूँ, और आज मैं अपनी सज़ा पाने को तैयार हूँ। मैं मारने एवं मरने, दोनों के लिए प्रस्तुत हूँ।" एक गहरी सांस लेकर उसने जोड़ा, "लेकिन विडंबना देखो, आज तो मैं एक परिवार बसाने जा रहा था।"
अध्याय २: धर्मसंकट और रजपूती वचन
वीर सिंह ने जयपाल की बात सुनी तो एक पल को ठिठक गया। उसके हृदय में प्रतिशोध की जो आग वर्षों से धधक रही थी, उसमें जैसे किसी ने पानी की कुछ बूंदें डाल दी हों। उसने पूछा, "किसका परिवार बसाने जा रहा था तू?" उसकी आवाज़ में अब भी कठोरता थी, पर कहीं न कहीं एक अनचाही जिज्ञासा भी।
जयपाल ने एक ठंडी आह भरी, उसकी आँखों में अपनी बेटी के भविष्य की चिंता स्पष्ट झलक रही थी। उसने कांपते होंठों से कहा, "आज मेरी बेटी का रिश्ता पक्का करने जा रहा था, वीर सिंह। बड़ी मिन्नतों और मुश्किलों से यह संबंध तय हुआ था। सोचा था, बिटिया के हाथ पीले करके अपने सिर का एक बड़ा बोझ उतार दूंगा। पर कोई बात नहीं... शायद मेरी बेटी के भाग्य में उसका अपना घर बसना नहीं लिखा था। शायद मेरे कर्मों का फल उसे भुगतना पड़ रहा है।" जयपाल की आवाज़ में निराशा और विवशता घुल गई थी।
वीर सिंह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसके मन में विचारों का बवंडर उठ खड़ा हुआ। एक ओर उसके मृत भाई का चेहरा था, जो न्याय की मांग कर रहा था, और दूसरी ओर जयपाल की बेटी का मासूम चेहरा, जो अपने भविष्य के सुनहरे सपने देख रही होगी। जयपाल ने उसके भाई का घर उजाड़ा था, इसमें कोई संदेह नहीं था। पर आज वही जयपाल अपनी बेटी का घर बसाने निकला था। यह कैसी विडंबना थी! यह कैसा धर्मसंकट था! क्या वह एक पिता की उम्मीदों को कुचल दे? क्या वह एक बेटी के सपनों को रौंद दे, केवल अपने प्रतिशोध की अग्नि को शांत करने के लिए?
कुछ पल के लिए वहाँ गहन निस्तब्धता छा गई। केवल हवा की सरसराहट और दूर कहीं किसी पक्षी के क्रंदन की आवाज़ आ रही थी। वीर सिंह के साथी भी अपने सरदार के चेहरे पर बदलते भावों को देखकर असमंजस में थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनका अजेय सरदार अचानक इतना विचारमग्न क्यों हो गया।
वीर सिंह ने अपनी आँखें बंद कर लीं। एक पल के लिए उसने अपने पुरखों का स्मरण किया, उन वीर राजपूतों का जिन्होंने अपनी आन, बान और शान के लिए प्राण न्योछावर कर दिए थे, पर जिन्होंने कभी किसी निर्दोष या असहाय पर अत्याचार नहीं किया था। उसने उन कथाओं को याद किया जिनमें क्षत्रिय धर्म की रक्षा के लिए व्यक्तिगत शत्रुता को भी भुला दिया गया था। उसके कानों में उसके पिता के शब्द गूंजे, "बेटा, सच्चा वीर वह नहीं जो केवल तलवार चलाना जानता हो, सच्चा वीर वह है जो धर्म और न्याय का साथ कभी न छोड़े, चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत क्यों न हों।"
अचानक वीर सिंह ने आँखें खोलीं। उसकी आँखों में अब प्रतिशोध की ज्वाला नहीं, बल्कि एक गहरी समझ और एक कठिन निर्णय की दृढ़ता थी। उसने अपनी म्यान में लटक रही तलवार को देखा, और फिर जयपाल की ओर। उसकी आवाज़ अब भी गंभीर थी, पर उसमें पहले जैसी कटुता नहीं थी।
"जयपाल," वह बोला, "तुझे बहुत इंतजार करके आज मैंने पकड़ा था। वर्षों से यह आग मेरे सीने में जल रही थी। आज मेरा बदला पूरा होना निश्चित था।" उसने एक पल का विराम लिया, फिर कहा, "लेकिन... लेकिन मेरा बदला इंतजार करेगा। आज तू जा, अपनी बेटी का रिश्ता पक्का करके उसका घर बसाने जा। निकल यहाँ से, और समय पर अपने गंतव्य पर पहुँच।"
जयपाल अविश्वास से वीर सिंह को देखता रह गया। उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था।
वीर सिंह ने अपनी बात जारी रखी, उसकी आवाज़ में अब एक चेतावनी का स्वर भी था, "लेकिन यह मत भूलना जयपाल, कि मेरा बदला अभी बाकी है। वह मैं लेकर रहूँगा। आज मैं तुझे केवल इसलिए छोड़ रहा हूँ क्योंकि तू एक पिता के धर्म का निर्वाह करने जा रहा है।"
जयपाल के पास शब्द नहीं थे। उसकी आँखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आए। उसने केवल हाथ जोड़कर वीर सिंह को मौन धन्यवाद दिया, अपने घोड़े पर सवार हुआ और बिना पीछे देखे उस रास्ते पर बढ़ गया जो उसे उसकी बेटी के भविष्य की ओर ले जा रहा था।
जयपाल के जाने के बाद, वीर सिंह के एक साथी ने, जो अब तक इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से हैरान था, अपने सरदार से पूछा, "सरदार, आपने यह क्या किया? बरसों पुराना दुश्मन हाथ आया और आपने उसे जाने दिया? आपके भाई की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी?"
वीर सिंह ने एक गहरी सांस ली और दूर क्षितिज की ओर देखते हुए कहा, उसकी आवाज़ में अब एक अजीब सी शांति और दृढ़ता थी, "बेटी तो बेटी होती है, साथी। फिर चाहे वह खुद की हो, दोस्त की हो, या दुश्मन की। गांव की बेटी, गांव की मर्यादा होती है, गांव की इज्जत होती है। और हम राजपूत अपनी जान दे सकते हैं, पर गांव की इज्जत पर आंच नहीं आने दे सकते। बदला तो मैं कभी भी ले सकता हूँ, पर किसी बेटी के घर बसने से पहले उसके पिता की जान लेकर मैं अपने पुरखों को क्या मुँह दिखाऊंगा? मैं अपने भाई का हत्यारा हो सकता हूँ, पर किसी बेटी का घर उजाड़ने वाला नहीं।"
वीर सिंह के यह बोल, यह निर्णय, और यह धर्मपरायणता, राजस्थान की उस वीरभूमि की संस्कृति रूपी रक्त में गहराई तक समाहित है, जहाँ आन, वचन और मानवीय मूल्य व्यक्तिगत प्रतिशोध से कहीं ऊपर माने जाते हैं। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा वीर वही है जो क्रोध और प्रतिशोध के क्षणों में भी अपने धर्म और मानवीयता का मार्ग न त्यागे।
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